रविवार, 8 नवंबर 2009

जीवनानंद दास की प्रसि‍द्ध कवि‍ता वनलता सेन

वनलता सेन


बीते कितने कल्प समूची पृथ्वी मैंने चलकर छानी,

वहाॅं मलय सागत तक सिंहल के समुद्र से रात दिन

भर अंधकार में मैं भटका हॅंू, था अषोक औ बिंबसार के

धूसर लगते संसारों में दूर समय में और दूर था

अंधकार में मैं विदर्भ में ! थका हुआ हूूॅं-

चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन

शांति किसी ने दी तो वह थी

नाॅटर की बनलता सेन

उसके घने केष-विदिषा पर घिरी रात के अंधकार से

मुख श्रावस्ती का षिल्पित हो ,दूर समुद्री आॅंधी में

पतवार गई हो टूट दिषाएॅं खो दी हों नाविक ने

अपनी फिर वह देखे हरी पत्तियों वाला कोई द्वीप अचानक

उसी तरह देखा था उसको अंधकार मं पूछा उसने

कहा रहे बोलो इतने दिन ?चिड़ियों के घोंसले सरीखी

आॅंखों से देखती हुई बस नाॅटर की बनलता सेन

संध्या आती ओस बूंद सी दिन के चुक जाने पर धीरे

चील पोंछ लेती डेनों से गंध धूप की बुझ जाते रंग

थम जाती सारी आवाजें चमक जुगनुओं की रह जाती

टौर पांडुलिपि कोरी जिसमें कथा बुनेगी रात उतरती

स्ब चिड़ियाॅं सब नदियाॅं अपने घर को जाती

च्ुक जाता है जीवन का सब लेन देन

श्रह जाता केवल अंधकार सामने वही

वनलता सेन

वनलता सेन

वनलता सेन !!!!

कवि जीवनानंद दास

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